डीए वाली पेंशन: सरकारी कर्मचारियों पर ही दिल दरिया क्‍यों?

राजनीतिक जमातें किसान मजदूर को डीए वाली पेंशन की जरूरत क्‍यों नहीं महसूस करतीं

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महेंद्र सिंह

अपना वादा निभाते हुए आज हिमाचल सरकार ने ओल्‍ड पेंशन सिस्‍टम को बहाल कर दिया है। कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में वादा किया था और उसे इस वादे का फायदा भी मिला। पार्टी ने राज्‍य में सरकार बना ली है। इससे देश में एक पहले से चल रही ओल्‍ड पेंशन सिस्‍टम बहाल करने की मांग और जोड़ पकड़ सकती है। हालांकि योजना आयोग के पूर्व अध्‍यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया सहित कई इकोनॉमिक एक्‍सपर्ट ओल्‍ड पेंशन सिस्‍टम को वित्‍तीय टाइम बम बता चुके हैं। खैर, हम ओल्‍ड पेंशन सिस्‍टम बनाम न्‍यू पेंशन सिस्‍टम की बहस में खुद को और न उलझाते हुए दूसरी बात करना चाहते हैं। वो बात ये है कि पेंशन की जरूरत तो सबको है। हर व्‍यक्ति की एक कामकाजी उम्र होती है। जैसे सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में ये 58 और 60 साल है। इसके बाद कर्मचारी रिटायर हो जाता है। इसके बाद उसको पेंशन की जरूरत होती है। जिससे रिटायरमेंट के बाद की उसकी जरूरतें पूरी होती रहे।

90 प्रतिशत आबादी को चाहिए पेंशन

अगर कोई नौकरी नहीं करता है। अपना बिजनेस या कोई कारोबार करता है। या किसान है। या ऑटो चलाता है। तो कामकाजी उम्र तो उसकी भी होती है। उसे भी पेंशन की तरह किसी सोशल सिक्‍योरिटी सिस्‍टम की जरूरत है। क्‍योंकि जीवन भर काम तो कोई नहीं कर सकता। देश में ऐसे लोगों की आबादी करीब 90 प्रतिशत है जिनको किसी तरह का मजबूत सोशल सिक्‍योरटी नेट उपलब्‍ध नहीं है। और अगर है तो वो बुढापे में बेहतर जिंदगी सुनिश्चित करने के लिए नाकाफी है। सवाल ये है कि राजनीतिक दल और राजनीतिक जमातें इन सभी लोगों को ऐसा सोशल सिक्‍योरिटी सिस्‍टम उपलब्‍ध कराने के लिए आवाज बुलंद क्‍यों नहीं कर रहे हैं जिस तरह से सरकारी कर्मचारियों के लिए ओल्‍ड पेंशन सिस्‍टम बहाल करने को लेकर इनका दिल दरिया हुआ जा रहा है? क्‍या ऐसी पेंशन सिर्फ सरकारी कर्मचारियों के लिए होनी चाहिए जिस पर महंगाई बढ़ने के साथ डीए भी मिले? देश में बाकी लोगों को गरिमा के साथ रिटायर होने और सुखद जीवन जीने की आकांक्षा नहीं रखनी चाहिए।

किसान मजदूर को को क्‍यों नहीं मिलनी चाहिए पेंशन

देश में एक बड़ा वर्ग किसानों का है। एक मोटे अनुमान के तौर पर करीब 10 करोड़ किसान परिवार हैं। किसान ही देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करता है। देश की खाद्य सुरक्षा भी राष्‍ट्रीय सुरक्षा जितनी अहम है। भारत ने कुछ दशक पहले ऐसे दिन देखे हैं जो हमें अनाज विदेशों से मंगाना पड़ता था और इसके लिए दूसरे देशों से मिन्‍नतें भी करनी पड़ती थी तब जाकर हमें घटिया क्‍वालिटी का अनाज मिलता था और देश के लोग किसी तरह से अपना पेट भरते थे। ये अलग बात है कि हरित क्रांति के बाद देश खाद्यान उत्‍पादन में आत्‍मनिर्भर तो हुआ लेकिन यहीं से किसानों के बुरे दिनों की शुरूआत भी हो गई। आज देश में किसान इतना अनाज पैदा करता है कि सरकार इस अनाज को फ्री राशन स्‍कीम के तहत मुफ्त बांटने की हैसियत में है। तो क्‍या इन 10 करोड़ किसान परिवारों को पेंशन नही मिलनी चाहिए। वही ओल्‍ड पेंशन जिसमें साल दर साल बढ़ती महंगाई के साथ डीए जुड़ता जाता है।

अब बात करते हैं श्रमिकों की। जिनको हम लेबर याली दिहाड़ी मजदूर कहते हैं। ये लोग जहां काम मिलता है वहां काम करते हैं। जब काम मिलता है तब काम करते हैं। यानी इनका कुछ भी तय नहीं होता है। मसलन कब काम मिलेगा और कब काम नहीं मिलेगा। लेकिन इनकी बुनियादी जरूरतें तय होती हैं। इनको भी खाना, कपड़ा और सर पर छत की दरकार होती है। तो इनके लिए कोई पेंशन की मांग क्‍यों नहीं करता है। कोई राजनीतिक दल इनके लिए डीए वाली पेंशन की मांग को लेकर आंदालन क्‍यों नहीं करता है। इनको भी रिटायर होने और रिटायरमेंट के बाद पेंशन का लाभ मिलने की जरूरत पर टीवी पर बहस क्‍यों नहीं होती है।

सरकार के पास पैसा कहां है

अब आप कह सकते हैं। कि सरकार के पास इतना पैसा कहां है कि वो सबको पेंशन दे। तो सरकार के पास तो सरकारी कर्मचारियों को पेंशन देने के लिए भी पैसा नहीं है। केंद्र सरकार अपने कर्मचारियों को डीए वाली पेंशन दे रही है न किसी न किसी का पेट काट करके ही दे रही है। देश के संविधान में बराबरी का अधिकार तो सबको मिला हुआ है। क्‍या हमारी सरकारें इस दिशा में काम करती दिख रही हैं? मौजूदा समय में तो ऐसा नहीं लगता है। सिर्फ सरकारी कर्मचारियों के लिए डीए वाली पेंशन की राजनीतिक मुहिम देश में उस कल्‍चर को फिर से स्‍थापित करने की दिशा में एक मुहिम जो देश के संसाधनों पर कुछ खास लोगों को लाभ सुनिश्चित करता रहता है। अब ये खेल बंद होना चाहिए।

 

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