चुनी गई चुप्पियों का खतरनाक दौर

मसला कोई भी हो सही गलत कुछ नहीं सबका अपना सही और गलत है

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⇒ महेंद्र सिंह

सही मायनों में देखा जाए तो आज का भारत चुनी गई चुप्पियों का देश है। और देश और आम जनता के लिए खतरनाक भी। चुनी गई चुप्पियों का मतलब है कि कोई मसला आएगा तो मुझे शूट करेगा तो हम इस पर बोलेंगे और मुझे शूट नहीं करेगा तो इस पर चुप रहेंगे। मसला गलत हो या सही इसकर कोई मतलब नहीं है। यानी सही या गलत पर स्‍टैंड न लेने का दौर। पहले ऐसा राजनीतिक दल करते थे। उनको लगता था कि इस मसले पर बोलने से या विरोध करने से उनके वोटर नाराज होंगे तो वे नहीं बोलते थे। चुप रह जाते थे। या कुछ गोलमोल बोल कर निकल लेते थे। लेकिन आज के दौर में ये जनमानस के स्‍तर पर आ गया है। आम लोगों ने भी चुनी हुई चुप्पियों का खेल सीख लिया है।

आज सोशल मीडिया का जमाना है। और गांवगांव तक स्‍मार्टफोन पहुंच चुका है। ऐसे में किसी भी मसले पर लोगों की प्रतिक्रिया मिनटों में आती है। अब वो दौर नहीं रहा कि आज रात में अखबार छपेगा कल लोगों के पास पहुंचेगा फिर लोग प्रतिक्रिया करेंगे। अब लोगों तक सूचनाएं मिनटों में पहुंच रहीं हैं और सोशल मीडिया की वजह से प्रतिक्रिया भी उतनी ही तेजी से आती है।

देश के राजनीतिक दलों की अलगअलग विचारधारा, नीतियां और कार्यकम होते हैं। इसीलिए वे अलग राजनीतिक दल होते हैं। लेकिन आम लोगों के मसले कॉमन होते हैं। आम आदमी को क्‍या चाहिए। अच्‍छी कानून व्‍यवस्‍था, स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाएं, रोजगार और बच्‍चों की पढ़ाई के लिए अच्‍छे स्‍कूल। ये लोगों की बुनियादी जरूरतें हैं। इन मसलों पर तो देश के जनमानस की एक राय होनी चाहिए। लेकिन जमीन पर ऐसा दिखता नहीं है।

कानून व्‍यवस्‍था का मसला

पहले लेते हैे कानून व्‍यवस्‍था का मसला। अगर कानून व्‍यवस्‍था से जुड़ा कोई मसला आता है तो इस पर प्रतिक्रिया इस हिसाब से आती है कि किस राज्‍य में हुआ है। क्‍योंकि कानून व्‍यवस्‍था राज्‍य का विषय है। वहां पर किस राजनीतिक दल की सरकार है। और मैं कहां हूं इधर हूं या उधर हूं। यानी मेरी सहानूभूति किस राजनीतिक दल के साथ है। इसके बाद अगर इस पर प्रतिक्रिया देना राजनीतिक फ़ायदे के लिहाज से शूट करता है तो मैं प्रतिक्रिया दूंगा वरना चुनी गई चुप्पियों का सहारा लूंगा। ये राजनी‍तिक दल की बात नहीं है। ये आम जनमानस की बात है जो राजनीतिक रूप से जागरूक है। जिसे पता है कि इस मसले पर मेरी प्रतिक्रिया अहम है। इस प्रतिक्रिया से लोकतंत्र में सरकारों पर दबाव बनता है और वे एक्‍शन लेने के लिए मजबूर होती हैं। एक तरह से अब आम जनमानस भी इस दबाव में है कि किसी मसले पर स्‍टैंड लेने से मैं कहां खड़ा दिखूंगा, सेक्‍युलर खेमे में या राष्‍ट्रवादी खेमे में।

रोजगार का मसला

इसी तरह से रोजगार का मसला है। हर जाति, मजहब के लोगों को रोजगार चाहिए। इस पर दो मत नहीं हो सकते हैं। लेकिन रोजगार के मसले पर उन लोगों के बीच तीव्र विभाजन दिखता है जिनको रोजगार चाहिए। जिनके लिए ये सवाल जीने मरने का है। रोजगार के मसले पर आप किसी से बात करें तो पता चलेगा कि अगर उनको सरकार पसंद नहीं है तो उनके लिए रोजगार मसला है। और अगर सरकार पसंद है तो रोजगार कोई मसला ही नहीं है। ये बात सिर्फ चुनाव में वोट देने तक सीमित नहीं है। आम बातचीत में भी ये निष्‍कर्ष निकल कर आ जाता है।

ताजा मामला सेना की अग्निवीर स्‍कीम का है। इस योजना को लेकर सेना में भर्ती की तैयारी कर रहे युवाओं में विरोध देखा गया। लेकिन इस स्‍कीम का उग्र विरोध ज्‍यादातर उन राज्‍यों में हुआ जहां बीजेपी की सरकार नहीं है। या बीजेपी की गठबंधन सरकार है। सबसे बड़ी आबादी वाले राज्‍य यूपी में इस योजना का उतना विरोध नहीं हुआ जितना उग्र विरोध बिहार में हुआ। जबकि यूपी में विपक्ष भी सशक्‍त है और राज्‍य में राजनीतिक आधार पर तीव्र ध्रुवीकरण है। और इस स्‍कीम का विरोध हुआ तो सरकार को उतना ही समर्थन भी मिला। स्‍कीम का विरोध कर रहे राजनीतिक दलों और युवाओं को लगा कि इसके विरोध में उनको आम जनमानस का ज्‍यादा समर्थन नहीं मिल रहा है तो ये आंदोलन अपने आप शांत हो गया।

स्‍वास्‍थ्‍य का मसला

स्‍वास्‍थ्‍य यानी अच्‍छी मेडिकल सुविधाएं सबकी जरूरत है। लेकिन स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं से जुड़ा कोई मसला आता है तो इस पर भी प्रतिक्रियाएं राजनीतिक नफानुकसान के हिसाब से आती हैं। राजनीतिक दल राजनीतिक नफा नुकसान के हिसाब से प्रतिक्रिया दें तो समझ में आता है लेकिन आम जन मानस के स्‍तर पर ऐसा हो रहा है ये खतरनाक बात है। और इसका नतीजा कोरोना पहली और दूसरी लहर में दिखा भी। ऐसे दौर में भी जब हर व्‍यक्ति अपने जीवन की सुरक्षा को लेकर चिंतित था उस दौर में भी लोग व्‍यवस्‍था पर सवाल तो उठा रहे थे लेकिन सुविधाजनक तौर पर। केंद्र सरकार राज्‍य सरकार पर जिम्‍मेदारी डाल रही थी और राज्‍य सरकारें केंद्र सरकार पर। और आम लोग पर इसी तर्ज पर कोरोना में स्‍वाथ्‍य सुविधाओं की बदहाली पर इसी तरह से प्रतिक्रिया दे रहे थे। आम लोग ही नहीं बुद्धिजीवी तबके एक वर्ग तो पहले वैक्‍सीन लेकर भी अफवाह फैलाने पर जुट गया वो कोराना की दूसरी लहर आ गई और ये इतनी खतरनाक थी कि ऐसे लोगों को भी वैक्‍सीन लगवानी पड़ी। कोराेना की पहली लहर में ऐसे लोग भी मिले तो कहते थे कि कोराना कुछ नहीं है ये सरकार की साजिश है कोई कहता था दवा कंपनियों की साजिश है।

मजहबी कट्टरता का मसला

और आज देश के सामने सबसे बड़ा मसला है। बढ़ती मजहबी कट्टरता। यहां पर आम लोगों और बुद्रधजीवियों की चुनी गई चुप्पियां आपको सबसे ज्‍यादा दिखेंगी। किसी को एक जानवर लेकर जा रहे बेकसूर शख्‍स को पीट पीट कर मारे जाने पर चुप रह जाना सुविधाजनक लगता है तो किसी को सर तन से जुदा नारे पर प्रतिक्रिया देना सुविधाजनक नहीं लगता है। यानी वही चुनी गई चुप्पियों का सहारा। किसी को एक मजहब की कट्टरता देश को तोड़ने वाली लगती है वहीं दूसरे मजहब की कट्टरता का विरोध करना उनकी सेक्‍युलर पहचान को खतरे में डालने वाला लगता है।

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