महेंद्र सिंह
राहुल गांधी की अगुवाई में लगभग 4 हजार किलोमीटर की भारत यात्रा जनवरी में समाप्त हो चुकी है। अब इस यात्रा से पैदा हुआ गुबार भी शांत हो रहा है। अब समय है इस यात्रा की विवेचना करने का। यानी कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए हासिल क्या रहा इस यात्रा का। एक बात तो साफ है कि महीनों चली ये यात्रा चर्चा में रही। अगर कांग्रेस समर्थकों के इस आरोप को मान भी लिया जाए कि मुख्य धारा की मीडिया ने इस यात्रा को सरकार के दबाव में उचित कवरेज नहीं दिया तो भी राहुल गांधी मीडिया की सुर्खियों में रहे। कांग्रेस पार्टी और उसके समर्थकों ने सोशल मीडिया का इस्तेमाल भी प्रभावी तरीके से किया। एक नेता के तौर पर लंबे समय से राहुल गांधी की इस बात के लिए आलोचना की जाती रही है कि वे सड़क पर तो उतरते हैं लेकिन अचानक गायब हो जाते हैं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं कहा जा सकता है। और 4,000 किलोमीटर की यात्रा पैदल करना किसी भी सूरत में आसान काम नहीं है। भले ही उनके साथ कितना भी बड़ा लाव लश्कर या सुविधाएं हों।
भारत जोड़ो यात्रा का हासिल
अब बात करते हैं भारत जोड़ो यात्रा के मकसद की। और राहुल गांधी इस मकसद को पाने में कितना सफ़ल दिख रहे हैं। शुरुआत में कांग्रेस की ओर से कहा गया कि ये यात्रा राजनीतिक नहीं है। इस यात्रा का मकसद देश को मजबूत करना है। कैसे मजबूत करना है। देश की एका को मजबूत करना है। देश में सांप्रदायिक सौहार्द का माहौल बनाना है। क्यों बनाना है? क्योंकि बीजेपी और आरएसएस देश में नफ़रत फैला रहे हैं। इसके बाद यात्रा आगे बढ़ती रही और तमाम मुद्दे इसमें शामिल होते रहे। जैसे बेरोजगारी महंगाई और किसानों की समस्याएं। ये यात्रा लगभग पूरे देश से गुजरी। और अलग अलग हिस्सों में इसे अलग अलग रिस्पांस मिला। देश के जिन इलाकों में कांग्रेस आज भी मजबूत है वहां काफी अच्छा रिस्पांस मिला और जहां कमजोर है वहां कमजोर रिस्पांस मिला। इस बात में कोई शक नहीं है कि इस यात्रा से राहुल गांधी और कांग्रेस को फ़ायदा ही हुआ है। लेकिन समस्या ये है कि कांग्रेस कोई एनजीओ नहीं है कांग्रेस एक राजनीति दल है। और भारत यात्रा की सफलता को आज नहीं तो कल चुनावी नतीजों के आइने में देखा जाएगा। और भारत यात्रा की असली सफलता का आंकलन भी इस बात से किया जाएगा कि आगामी महीनों में देश के तमाम राज्यों के चुनाव और इसके बाद 2024 के चुनाव नतीजे कांग्रेस के लिए कैसे रहते हैं।
जोश में हैं कार्यकर्ता और इकोसिस्टम
खैर चुनाव तो जब होंगे तब होंगे। लेकिन इस यात्रा ने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और कांग्रेस के इकोसिस्टम को उत्साहित जरूर किया है। इससे पहले ये निरशा के गर्त में डूबे हुए थे। अब कम से कम इनके पास कहने के लिए कुछ बाते हैं। जैसे मोदी सरकार राहुल गांधी से डरती है। देश राहुल गांधी को उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है। और मोदी सरकार की उलटी गिनती शुरू हो गई है। एक राजनीतिक दल के लिए ये अच्छे संकेत ही कहे जाएंगे कि उसके कार्यकर्ता उत्साहित हैं और अपने नेता के साथ लामबंद हैं। और इकोसिस्टम को तो उत्साहित होना ही था। क्योंकि निराशा में वो अपना काम सही तरीके से नहीं कर सकता। जो लोग इकोसिस्टम नहीं समझते हैं उनके लिए बता रहा हूं, इकोसिस्टम एक व्यवस्था है जो कांग्रेस के लंबे अरसे के शासनकाल में बनी है। इकोसिस्टम में पत्रकार, लेखक, पूर्व नौकरशाह, पूर्व न्यायधीश से लेकर पूर्व सैनिक तक शामिल हैं। इकोसिस्टम के नाम से ही जाहिर है। इसमें ज्यादातर वे लोग शामिल हैं जिनको कांग्रेस के लंबे समय के शासनकाल में आर्थिक फ़ायदे मिले हैं। कैरियर में तरक्की मिली है और दूसरे वे सभी फ़ायदे मिले हैं जो भारत सरकार या प्रदेश सरकार किसी को दे सकती है। हालांकि इकोसिस्टम में ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो जिनको जो कुछ भी मिला अपनी योग्यता से मिला है और वे कांग्रेस से सिर्फ इसलिए सहानुभूति रखते हैं क्योंकि उनका कांग्रेस की विचारधारा में विश्वास और जुड़ाव है। जाहिर है करीब 9 साल से मोदी की अगुवाई में भाजपा देश में शासन कर रही है और तमाम राज्यों में भी बीजेपी की सरकार है। इसलिए इकोसिस्टम के लिए कुछ नया हासिल कर पाना आसान नहीं है। हालांकि कुछ राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं। वहां से जितना संभव हो सकता है उतना इकोसिस्टम को मिलता रहता है।
कांग्रेस कमज़ाेर हुई है इकोसिस्टम नहीं
भारत की राजनीति में इकोसिस्टम को हल्के में नहीं लिया जा सकता। क्योंकि इकोसिस्टम में शामिल लोग सक्रिय राजनीति में नहीं हैं। वे किसी न किसी पेशे में हैं या रहे हैं। ऐसे में वे कोई बात कहते हैं तो उनकी बात की विश्वसनीयता राजनीतिक दलों की तुलना में ज्यादा होती है। और इस इकोसिस्टम ने पिछले 9 साल में कई बार मोदी सरकार के लिए मुश्किलें पैदा की हैं। कई बार सही मुद्दे पर और कई बार बिना किसी मुद्दे के।
कांग्रेस देश की राजनीति में भले कमजोर हुई हो लेकिन कांग्रेस का इकोसिस्टम अब भी मजबूत है। मजबूत इसलिए है क्योंकि ये सिस्टम दशकों में विकसित हुआ है और कई लोग इस सिस्टम से इतनी गहराई से जुड़े हुए थे कि अब चाह कर भी उनके लिए पाला बदलना संभव नहीं है। इसके अलावा एक और फैक्टर ये है कि ये मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार है। सरकार का फ़ंडा साफ है कि या तो आप हमारे साथ हैं या आप हमारे खिलाफ हैं। बीच की गुंजाइश बहुत कम है। अटल बिहारी बाजपेई की सरकार के समय ऐसा नहीं था। न ही देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण इतना तेज था। ऐसे में इकोसिस्टम कांग्रेस के पक्ष में हवा बनाने के अपने काम में लगा रहे, इसके अलावा मौजूदा पावर स्ट्रक्चर में उसके पास ऑप्शन बहुत कम हैं।
कभी तो थकेंगे मोदी
राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद 2024 के आम चुनाव में लगभग 1 साल का समय है। और राजनीति में एक हफ्ते का समय भी बहुत होता है। इसका मतलब है कि एक हफ्ते में राजनीतिक फि़जा किसी एक दल के पक्ष में बन सकती है और बिगड़ भी सकती है। वैसे ये कहावत पुरानी है। 2014 के देश की राजनीति में नरेंद्र मोदी ने बार बार इस बात को साबित किया है कि उनकी राजनीतिक का आकलन पुराने चश्मे से यानी पारंपरिक राजनीति के नज़रिए से करने वाले अक्सर गलत साबित होते हैं। फिलहाल देश में व्यापक जनसमुदाय में ऐसी कोई राजनीतिक चेतना नहीं दिखती है कि मोदी सरकार को हटाना है और कांग्रेस की सरकार बनाना है। कांग्रेस के नेता भी निजी बातचीत में इस बात को स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि राहुल गांधी के पास लंबा राजनीतिक जीवन है। यानी कांग्रेस मोदी के थकने और चुकने का इंतजार करने के लिए मानसिक तौर पर तैयार है। मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाना इस बात का साफ संकेत है कि कांग्रेस सत्ता के आसपास भी नहीं है। कांगेस 2024 की लड़ाई इस बात के लिए लड़ने वाली है कि कम से कम उसकी हैसियत मजबूत विपक्षी दल की बने। अगर कांग्रेस ये लक्ष्य हासिल कर लेती है तो राहुल गांधी की आगे की लड़ाई आसान हो जाएगी।