⇒ महेंद्र सिंह
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर गुजरात में बीजेपी की प्रचंड जीत के शहंशाह हैं। और वाकई में हैं भी तो सवाल उठता है कि हिमाचल की करारी हार की वरमाला कौन पहनेगा? जाहिर है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह से आज ये सवाल पूछने वाला बीजेपी में कोई नहीं है। लेकिन जब भी गुजरात की जीत का शहंशाह मोदी को बताया जाएगा तो हिमाचल की करारी हार भी अपना वैध वारिस जानना चाहेगी।
मौजूदा बीजेपी में भाजपा शासित राज्य का मुख्यमंत्री हो, केंद्र का मंत्री हो या संगठन का नेता। हर कोई अपना बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में के दोहे साथ शुरू करता है। ये एक अलिखित नियम है। और हर कोई इसका पालन धार्मिक श्रद्धा के साथ करता है। भले ही मजबूरी में करता है लेकिन करता है। आज जब नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी सफलता दर सफलता हासिल कर रही है तो ऐसा होना बहुत स्वाभाविक भी लगता है।
थानेदार से दरोगा भी बने
मोदी की अगुवाई में बीजेपी गुजरात में चुनाव से एक साल पहले अपना मुख्यमंत्री मय कैबिनेट रातों रात बदल देती है और कोई चूं भी नहीं करता। कम से कम सार्वजनिक तौर पर। महाराष्ट्र में पूर्व मुख्यमंत्री को उपमुख्यमंत्री बनने के लिए दिल्ली से कहा जाता है वो भी तब जब पूर्व मुख्यमंत्री पहले ही कह चुके थे कि वे सरकार में शामिल नहीं होंगे। लेकिन यहां नेता की मर्जी नहीं चलती। मर्जी सिर्फ दिल्ली की चलती है। ये वैसे ही है कि थाना संभाल चुके किसी व्यक्ति को उसी थाने में किसी थानेदार मातहत दरोगा बना दिया जाए। लेकिन आज की बीजेपी की राजनीति में सब कुछ संभव है।
राज्यों में वापसी नहीं करा पाए हाईकमान की पसंद के नेता
2014 के बाद बीजेपी में मोदी युग शुरू हुआ। उसके बाद ज्यादातर मुख्यमंत्री पीएम मोदी और अमितशाह की पंसद बने हैं। शिवराज चौहान और राजस्थान में वसुंधरा राजे को अपवाद कहा जा सकता है। लेकिन ये सबको पता है कि ये नेता मोदी और अमितशाह की आगे की राजनीति में फिट नहीं होते हैं। इनको किनारे लगाया जाना समय की बात है। लेकिन यूपी में योगी आदित्यनाथ के अलावा कोई और मुख्यमंत्री विधानसभा चुनाव में पार्टी की सम्मानजनक वापसी कराने में सफल नहीं रहा है। और योगी आदित्यनाथ को काबू में रखने के लिए दिल्ली से क्या क्या कवायद की जाती है ये बातें मीडिया में आए दिन सुर्खिया बनती रहतीं हैं। बीजेपी विधानसभा चुनावों में मोदी और अमितशाह के हैंडपिक्ड नेताओं की अगुवाई में हारती रही है। उत्तराखंड में तो पांच साल में दिल्ली को तीन तीन मुख्यमंत्री बदलने पड़े तब जाकर पुष्कर सिंह धामी की अगुवाई में बीजेपी उत्तराखंड में सरकार में वापस आई। झारखंड में रघुवरदास भी दिल्ली से नामित थे। और पार्टी राज्य में वापसी नहीं कर सकी।
बागी नेताओं ने लगाया पलीता
चैनलों पर हिमाचल की हार की वजह बागी बताए जा रहे हैं। लेकिन सवाल उठता है कि पार्टी के नेता बागी कैेसे हो गए। और बीजेपी और आरएसएस की चाबुक के बाद भी बागी मैदान में कैसे बने रहे कि पार्टी की संभावनाओं में पलीता लगा दिया। जब सीएम से लेकर मंत्री तक पार्टी हाईकमान तय करता है तो हार का वैध वारिस भी वही बनेगा। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा पार्टी अध्यक्ष के तौर पर कितने ताकतवर हैं ये थोड़ी भी राजनीतिक जागरूरता रखने वाला व्यक्ति जानता होगा।
आलकमान को नेता नहीं फॉलोवर चाहिए
बीजेपी के संगठन के एक नेता का कहना है कि आज आलाकमान को नेताओं की नहीं फॉलोवर की ज़रूरत है। कैडर की नहीं पैसा खर्च करने में सक्षम प्रत्याशी की जरूरत है। पार्टी कार्यकर्ता की कोई सुनता नहीं। वो किसी का कोई काम नहीं करा सकता। तो छोटे नेताओं और कार्यकर्ताओं का आम जनता से कनेक्ट कैसे बनेगा। ऐसे में आने वाले समय में अगर हिमाचल जैसे नतीजे दूसरे राज्यों में भी देखने को मिले तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।