महेन्द्र सिंह
शनिवार की शाम को कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला किया। राहुल गांधी ने कहा कि ये अडानी,अंबानी की सरकार है। राहुल गांधी लंबे समय से मोदी सरकार को उद्योगपतियों के हित में काम करने वाली सरकार बताते रहे हैं। ये बात भी काफी हद तक सही है कि मोदी सरकार के आठ साल के कार्यकाल में अडानी और अंबानी का धंधा काफी तेजी से फल–फूल रहा है। और ये सिर्फ भाजपा शासित राज्यों में नहीं हो रहा है।
हाल में राजस्थान में गौतम अडानी और मुख्यमंत्री अशोत गहलात की एक तस्वीर ने खूब चर्चा में रही थी। इस पर गहलोत से सवाल किया गया तो उन्होेंने जवाब दिया कि प्रदेश में निवेश के लिए वे किसी से भी मिल सकते हैं। शायद यही वजह है कि राहुल गांधी जब मोदी सरकार पर अंबानी और अडानी के लिए काम करने का आरोप लगाते हैं तो लोग गंभीरता से नहीं लेते हैं। उनको लगता है कि ये राजनीतिक बयान है।
राजनीतिक चंदे पर सब एक राय
तमाम राजनीतिक मतभेदों के बावजूद राजनीतिक दल एक बात एकमत हैं। चंदे का मामला। वे चंदा किससे कितना लेते हैं। नहीं बताते हैं। राहुल गांधी की कांग्रेस हो, नरेंद्र मोदी की भाजपा हो या दूसरे राजनीतिक दल। हर कोई अपने चंदे का हिसाब गुप्त रखना चाहता है। एक नियम भी है कि चंदे की रक़म 20,000 से कम है तो राजनीतिक दलों से इसके बारे में नहीं पूछा जा सकता है कि ये चंदा किसने दिया। सभी राजनीतिक दलों ने एक मिल कर ये रियायत अपने लिए ले रखी है। कुछ राजनीतिक दल तो ऐसे भी हैं जो बताते हैं उनको सारा चंदा 20,000 रु से कम की रक़म के तौर पर मिला है। यानी किसी भी कानून के तहत उनसे ये नहीं पूछा जा सकता कि आपको चंदा कौन देता है।
विपक्षी दल भी नहीं उठाते सुधारों की बात
अगर ये मान लिया जाए कि मौजूदा व्यवस्था में मौजूदा समय में शासन कर रहे राजनीतिक दल को फ़ायदा मिल रहा है तो भी ये बात अजीब है कि चुनावी चंदे में पारदर्शिता की मांग विपक्षी राजनीतिक दल भी नहीं उठाते। न कांग्रेस, न सपा न दूसरे दल ये मांग करते हैं कि नियमों में सुधार किया जाए और राजनीतिक दलों को मिले एक रुपये के चंदे की जानकारी सार्वजनिक की जाए।
बड़ा राजनीतिक चंदा
अब बात करते हैं बड़े राजनीति चंदे की। जो बड़े उ्योगपति और कारोबारी राजनीतिक दलों को देते हैं। ये रक़म सैकड़ो करोड़ रु में होती है। नरेंद्र मोदी सरकार राजनीति में काले धन के इस्तेमाल पर अंकुश लगाने के नाम पर इलेक्ट्राेरल बॉन्ड लेकर आई। इस बॉन्ड के जरिए कोई भी राजनीतिक दलों को चंदा दे सकता है। उसको इस उतनी रकम का इलेक्ट्रॉरल बॉन्ड भारतीय स्टेट बैंक से खरीदना होता है जितना चंदा राजनीतिक दल को देना चाहता है। इसके बाद वो अपनी पसंद के राजनीतिक दल को ये बॉन्ड दे देता है। राजनीतिक दल इस बॉन्ड को अपने बैंक अकाउंट में जमा करा देता है। देने वाले को न तो ये बताने की ज़रूरत है कि वो किसे चंदा दे रहा है और न चंदा पाने वाले राजनीतिक दल को ये बताने की जरूरत है कि उसे चंदा किसने दिया। हालांकि ये बाहर किसी को नहीं चलता है लेकिन सिस्टम को सब पता रहता है कि किसने किसको कितना चंदा दिया। क्योंकि ये सबकुछ पीएसयू बैंक के जरिए होता है। ऐसे में सरकार को पता है कि उसका दोस्त कौन है कि दुश्मन कौन। यानी विपक्षी दलों को किसने चंदा दिया ये सरकार को पता रहता है। ऐसे में सरकार उसे दुश्मन मान कर उसका माकूल इलाज कर सकती है। इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के आंकड़ों से भी पता चलता कि विपक्षी राजनीतिक दलों को इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के जरिए बहुत कम चंदा मिलता है। इसका 90 प्रतिशत सत्तारूढ राजनीतिक दल को जा रहा है।
सालों से कोर्ट में लटका है इलेक्ट्रोरल बॉन्ड का मामला
इन्ही खामियों को देखते हए सालों पहले इलेक्ट्राेरल बॉन्ड के मामले पर जनहित याचिका भी दाखिल की गई है। और ये मसला सालों से सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। सुप्रीम कोर्ट में मोदी सरकार इलेक्ट्रोरल बॉन्ड का बचाव कर ही है। सरकार का कहना है कि राजनीतिक व्यवस्था में काले धन को खत्म करने के लिए इलेक्ट्राेरल बॉन्ड की व्यवस्था की गई है। विपक्षी राजनीतिक दल भी इस व्यवस्था के खिलाफ हैं क्योंकि इलेक्ट्रोरल बॉन्ड के जरिए उनको किसने चंदा दिया है ये सरकार जान जाती हैं। अगर सरकार न जान पाए कि उनको किसने चंदा दिया है तो उनको भी इस व्यवस्था से कोई ऐतराज नहीं है।
देश में चल रहा है राजनीतिक दलों और कारोबारी घरानों का नेक्सस
देश में लंबे समय से राजनीतिक दलों और कारोबारी घरानों का नेक्सस चल रहा है। कारोबारी घराने राजनीतिक दलों की तमाम तरीकों से फ़डिंग करते हैं और चुनाव का खर्च उठाते हैं। और राजनीतिक दल अपनी सरकार आने पर इन कारोबारी घरानों को कारोबार में फ़ायदा पहुंचाते हैं। उनके अनुकूल नीतियां बनाते हैं। इस मसले पर सारे राजनीतिक दलों में कोई मतभेद नहीं है। यूपीए सरकार के 10 साल के कार्यकाल में भी यही नेक्सस काम कर रहा था। और नरेंद मोदी सरकार में भी यही नेक्सस काम कर रहा है। बस फर्क इतना है कि राहुल गांधी सरकार और कारोबारी घरानों के नेक्सस पर हमला बोल रहे हैं। लेकिन राहुल गांधी ये नहीं बताते कि उनकी सरकार आएगी तो वे कैसे कारोबारी घरानों के लिए काम नहीं करेंगे। इसीलिए जनता भी उनको बात को सुन कर भी अनसुनी कर रही है।