100% की नहीं, अब 75% की राजनीति करेंगे अखिलेश यादव
अब 100 % की नहीं अब 75 %की राजनीति करेंगे अखिलेश यादव
महेंद्र सिंह
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव अब 100 प्रतिशत की नहीं 75 प्रतिशत की राज़नीति करेंगे। ऐसा उन्होंने कहा नहीं है। लेकिन पिछले कुछ समय वे जो कर रहे हैं उससे ये बात पूरी तरह से साफ हो जाती है। इसे भाजपा के 80:20 की राजनीति के जवाब के तौर पर भी देखा जा रहा है। बीजेपी पर आरोप लगता है कि वो 80:20 की राजनीति करती है। यानी यूपी में 20 प्रतिशत मुसलमानों के खिलाफ 80 प्रतिशत हिंदुओ का ध्र्रुवीकरण करने का प्रयास करती है। अब ये बात भाजपा का कोई नेता आधिकारिक तौर पर नहीं मानेगा। लेकिन जमीन पर ऐसा दिखता और जो इससे इनकार करत है या तो वह बहुत मासूम है और या तो बहुत सयाना है।
हार पर हार से बेहाल हैं अखिलेश
खैर आज बात करते हैं अखिलेश यादव की। 2012 में जीत के साथ यूपी के सीएम का पद संभालने के बाद अखिलेश यादव 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव और 2017 व 2022 का विधानसभा चुनाव भाजपा के हाथों बुरी तरह से हार चुके हैं। 2022 में अखिलेश ने तमाम राजनीतिक दलों से गठबंधन किया। यूपी में एक हद तक सत्ता विरोधी लहर भी थी। उसका फा़यदा भी उनको मिला। मुस्लिम मतदातओं ने बहुत कुछ बर्दाश्त करके भी सपा को एकतरफ़ा वोट दिया। इस उम्मीद में कि भाजपा सत्ता से बाहर हो जाएगी। लेकिन सबकुछ करने के बावजूद भी सपा सत्ता तक नहीं पहुंच सकी।
सत्ता के लिए काफी नहीं एमवाई गठजोड़
तो सवाल ये है कि अख्रिलेश यादव करें तो क्या करें। अखिलेश यादव के पास कुल जमा एमआई कांबीनेशन है। 2022 की दो ध्रुवीय लड़ाई में उनको कुछ अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों के वोट भी मिले। थे लेकिन वे जानते हैं कि ये वोट पक्का नहीं है। ये वोट ऐसे लोगों का है जो सत्ता से नाराज थे और सरकार बदलना चाहते थे। उनको लगा कि अखिलेश टक्कर दे रहे हैं। तो ये वोट सपा को चला गया। ऐसे में उनको एक ही रास्ता दिख रहा है। रास्ता ये है कि किसी भी तरह से अन्य पिछड़े वर्ग और दलित समाज के एक बड़े तबके को अपने साथ जोड़ा जाए। अभी अन्य पिछड़े वर्ग का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ है। इसके अलावा तमाम सामाजिक कल्याण की योनजाओं की वजह से दलितों की अच्छी संख्या भाजपा को वोट दे रही है। और अगड़े यानी सवर्ण वोट मजबूती से भाजपा के साथ लामबंद दिख रहा है। 2022 में अखिलेश सहित पूरे विपक्ष ने योगी सरकार को ठाकुरों की सरकार के तौर पर प्रचारित किया। अखिलेश यादव परशुराम की मूर्तिया लगवा रहे थे। रणनीति थी कि कम से कम ब्राम्हणों को अपनी तरफ़ खींचा जाए। लेकिन नतीजे जब आए तो सारा भ्रम दूर हो गया। ब्राम्हणों ने जम कर भाजपा को वोट दिया। और जो ठाकुर मुलायम सिंह के जमाने से सपा से जुड़े थे। अखिलेश के बोल बचन से वे भी भाजपा के पाले में चले गए।
रामचरित मानस की पंक्तियां बनेंगी चुनावी हथियार
ताजा मामला ये है कि रामचरित मानस को लेकर चल रहे घमासान में सपा ने अपने अगड़े समाज से आने वाली दो महिला नेताओं को पार्टी से निकाल दिया है। ये दो नेता स्वामी प्रसाद मौर्य द्वारा राम चरित मानस पर की गई टिप्पणी का विरोध कर रहीं थी। अखिलेश यादव ने इन दो नेताओं को पार्टी से निकाल कर पार्टी की लाइन साफ कर दी है। वे अब खुल कर अगड़े बनाम पिछड़ों की राजनीति करने जा रहे हैं। सही मायने में देखें तो उनके पास और कोई रास्ता भी नहीं बचा है। योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी यूपी में अपना सामाजिक और राजनीति आधार लगातार मजबूत कर रही है। अगर किसी चश्मे के बिना देखा जाए तो ये बात साफ नजर आती है। और चुनाव दर चुनाव ये बात साबित हो रही है। जिनको ये नहीं दिख रहा है उनकी नजर का दोष नहीं उनकी समस्या कुछ और है।
ऐसे में अखिलेश यादव ने सत्ता के लिए अपना आखिरी दांव चल दिया है। मायावती के कमजोर होने के बाद उनको दलित मतदाताओं में पैठ बनाने की संभावनाएं भी दिख रही हैं। और रामचरित मानस की कुछ चौपाइयां इस समाज को उद्देलित करने में मददगार साबित हो सकती हैं। कम से कम अखिलेश यादव और उनके रणनीतिकारों को लगता है। और उनको ऐसा लगता है तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है। एक राजनीति दल के मुखिया होने के नाते अपनी रणनीति तय करने का अधिकार तो उनको है ही। बाकी चुनाव के नतीजे सब साफ कर देंगे।
यूपी बिहार नहीं है
इस रणनीति में एक समस्या है। समस्या ये है कि यूपी बिहार नहीं है। यूपी में सवर्ण मतदाताओं की संख्या अच्छी खासी है। पिछड़ा वर्ग कल्याण सिंह के जमाने से ही भाजपा के साथ रहा है। भले ही बीच में इस समाज की भागीदारी में कुछ कमी आई थी। लेकिन मोदी और अमितशाह के कमान संभालने के बाद बीजेपी ने इस समाज में बहुत गहरी पैठ बनाई है। और सत्ता और संगठन में बड़े पैमाने पर भागीदारी दी है। ऐसे में अखिलेश यादव बहुत बड़ा दांव खेला है। अगर ये दांव कामयाब होता है तो उनको सत्ता मिलेगी और दांव कामयाब नहीं हुआ तो जो उनके पास है यानी कुछ सवर्ण वोटर वे भी उनको नमस्ते बोल देंगे। जिस तरह का स्टैंड अखिलेश यादव ने लिया है उसमें सपा के साथ जुड़े सवर्ण नेता उनके साथ कितने दिन रह पाएंगे कहना मुश्किल है।
घड़ी की सुई को 90 के दशक में ले जाना चाहती है सपा
दूसरी बात अखिलेश यादव घड़ी की सुइयों को वापस 90 के दशक में ले जाना चाहते हैं जब पिछड़े वर्ग में राजनीतिक और आर्थिक ताकत हासिल करने की ललक दिखती थी और इसके लिए वे राजनीतिक रूप से लामबंद हो रहे थे। अब हालात वैसे नहीं रहे हैं। पिछड़े समाज को भी राजनीतिक ताकत में हिस्सेदारी मिली है और वे खुद को मजबूत बनाने के लिए आपस में ही प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। ऐसे में किसी एक झंडे के तले उनको लामबंद करना इतना आसान भी नहीं है। साथ ही समाजवादी पार्टी पर यादव समाज को सत्ता में जरूरत से ज्यादा तरजीह देने का आरोप लगता रहा है। और अन्य पिछड़ा वर्ग के एक बड़े तबके को लगता है कि ऐसा उनके हितों की कीमत पर हो रहा है। अन्य पिछड़े वर्ग की इसी नाराजगी का फ़ायदा भाजपा ने उठाया है। तो अखिलेश यादव की आगे की राजनीति बहुत मुश्किल है। ऐसे में 75:25 की राजनीति में ही वे अपने लिए कुछ उम्मीद देख पा रहे हैं।